अंधविश्वास एक वैश्विक समस्या है। सभी देशों व उन के नागरिकों को विभिन्न प्रकार के अंधविश्वासों और जादू-टोना आदि से जूझना पड़ता है। अंधविश्वासों का प्रचलन केवल एशियाई देशों ही नहीं बल्कि विकसित कहे जाने वाले यूरोपीय देशों में भी है। बात यदि भारतीय परिप्रेक्ष्य में की जाए तो बहु धर्म, मत, सम्प्रदाय के अलग-अलग देवों व पूजा-पद्धतियों के चलते यहाँ बाबा, सयाना, तांत्रिक, पीर, मियाँ जी, अवतार, देवाजी, गंडा-ताबीज, बंध सम्मोहन, वशीकरण, टोना-टोटका, मजार, तालाब-कुंड, झाड़-फूँक आदि बहुत सी बुराइयाँ सर्वव्याप्त हैं। बहुधा देखा गया है कि कई बार कई अंधविश्वास धर्म का अंग न होने के बावजूद ढोंगी लोगों द्वारा प्रचारित कर दिये जाते हैं। शहरों की अपेक्षाकृत गाँव-कस्बों में इस तरह की बहुत सी बुराइयाँ अधिक प्रचलित हैं जो जनता को अपने मोहपाश में फाँस कर उनका सर्वस्व नाश करने में लगी हैं। विभिन्न मामलों के अध्ययन (केस स्टडी) के आधार पर यह निष्कर्ष निकाला गया है कि विज्ञान एवं प्रौद्योगिकी के प्रयोग से आज के समाज में काफी हद तक जागरुकता आयी है। यदाकदा मामलों को छोड़ कर लोगों की समझ और विमर्श बढ़ा है परन्तु मीडिया की भूमिका जहाँ आज पूर्ण वैज्ञानिक होनी चाहिए थी व्यवसायिकता के चलते उसकी भूमिका अंधविश्वास निवारण के क्षेत्र में संदिग्ध है। कभी तो मीडिया बुनियादी विज्ञान को देवी-देवता से जोड़ता प्रतीत होता है और कभी अंधविश्वासों की वैज्ञानिक व्याख्या करता नहीं थकता। बल्कि कई मामलों में मीडिया अपनी रेटिंग बढ़ाने के लिये अंधविश्वास के मामलों का प्रचार करता ही दिखता है।
सन्तोष की बात है कि
वैज्ञानिक चेतना के प्रसार से अंधविश्वास को मामलों में हालिया वर्षों में काफी
कमी आयी है। अब कोई किसी के नाम की हांडी नहीं छोड़ता है और ना ही आनुवांशिक विकार
के साथ पैदा हुए मानव या पशु बच्चे को अवतार की संज्ञा दी जाती है। ग्रामीण
क्षेत्र में जागरुकता का संचार इस बात से साबित होता है कि अब पीलिया का रोगी या
साँप का काटा आदमी झाड़-फूँक वाले के पास ना जाकर डॉक्टर के पास पहले जाता है। पुराने समय में ग्रामीण क्षेत्रों में साक्षरता एवं
स्वास्थ्य सेवाओं का अभाव भी अंधविश्वासों के प्रचलन का एक मुख्य कारण था। इन
सेवाओं की ग्रामीण क्षेत्रों में पहुँच होने से अंधविश्वासों में कमी आयी है। इस
लेख में बहुत से उदाहरणों से और स्वयं सुलझाए गए मामलों के नतीजों से साबित होता
है कि अब कोई ढकोसला अधिक लंबा नहीं चल सकता, चाहे मंद गति से ही सही विज्ञान
एवं प्रौद्योगिकी ने बहुत सी भ्रांतियाँ मानव मन से मिटा दी हैं।
यातायात
के साधन को विकास के दौर की सबसे बड़ी देन समझा जा सकता है। दूरदराज के गाँवों में
बारात व तीर्थयात्रा के अवसर पर ही गाँव
से बाहर निकलने वाला ग्रामीण अब दूर-दूर की यात्राएँ करने लगा। अपने साथ वो
वैज्ञानिक विचार और अंधविश्वास निवारण जागरुकता भी लाने लगा। आजादी के संघर्ष से
खाली हुए कार्यकर्ता भी कुछ राजनीति से प्रेरित और कुछ आजादी के बाद के तीव्र
परिवर्तनों से प्रभावित होकर जागरुकता के संचार के लिए अपने-अपने स्तर पर दूरदराज
के क्षेत्रों में निकल पड़े। विज्ञान व प्रौद्योगिकी
की बहुत बड़ी देन सिनेमा, भोंपू रेडियो और मंडलियाँ
अंधविश्वास निवारण में अग्रसर हुई।
देश
में तेजी से विकास की लहर दिखाई दे रही थी। अब हरित क्रांति सिंचाई के साधनों से
सज कर थाली तक भोजन परोसने में कामयाब होती जा रही थी। असल में आजाद देश की
भयमुक्त प्रजा उत्साह से जागरुक हो रही थी। आम आदमी को भी अब विद्यालय जाने का
अवसर देकर सरकारें उनके लिए भी रोजगार का समान अवसर जुटा रही थी। पटवारी की नौकरी
को ही सबसे बड़ी नौकरी मानने वाला आम ग्रामीण कमाने खाने के लायक बन रहा था। जमीदार
और पूँजीवादी भी काम के बदले दाम दिए जाने के सच को समझ रहा था कि अब वो दिन लद
चुके जब बेगार ली जाती थी। इस समझ के विकसित होते ही बहुत बड़ा वर्ग अपने आप को
सुरक्षित महसूस करने लगा था।
शिक्षा
और वैज्ञानिक चेतना का सबसे बड़ा प्रभाव प्रचलित कुरीतियों पर पड़ा। शिक्षित वर्ग
धर्म-सम्प्रदाय से तो मुक्त नहीं हो पाया परन्तु अंधविश्वासों और आडम्बरों का
विरोध करने लगा। कहते हैं कि “सुधारवादी प्रक्रिया तेजी से बढ़ती है और गहरा असर
छोड़ती है, उसका मुजायरा बेशक दबी आवाज में होता है लेकिन असरकारक होता है”।
आडम्बरियों के पैर इतने मजबूत नहीं होते हैं कि वो विरोध की आवाज से जमे रहें, वो
विरोध में जल्द ही उखड़ जाते हैं। उदाहरण के तौर पर गत 30-35 वर्षों में जमीन से मूर्तियाँ निकलना और सपने
आने पर डेरे या मंदिर-मजार बनाना यकायक कम हो गया है। इसका कारण वैज्ञानिक चेतना
और जागरुकता का संचार ही तो है।
प्रचलित
टोने-टोटके व अंधविश्वास व उनकी मान्यताएँ
जनमानस
के अनुभव सांझा करने व बातचीत के दौरान
बहुत से प्रचलित टोने-टोटके व अंधविश्वास पता चले जो कि आजादी पूर्व तथा 70 के दशक तक विद्यमान थे परन्तु समय के साथ-साथ विलुप्त होते चले गए और
वर्तमान में उन का अस्तित्व ही नहीं बचा है। अब अगर ऐसी (निम्न वर्णित) घटनाएँ
यदा-कदा होती भी हैं तो कोई विश्वास नहीं करता और यदि करे तो जल्द ही भांडाफोड़ हो
जाता है।
किसी
को मारने के लिए या मौत से भयभीत करने के लिए अमुक के नाम की हांडी छोड़ना।
घर
में खून के छींटे पड़ना।
घर
के आँगन में कंकड़-बजरी की बौछार पड़ना।
घर
के आँगन में सिक्के मिलना।
ट्रंक
में पड़े कपड़े जलना।
खलिहान
में कृषि उत्पाद का जल जाना।
गुहारे
में उपले जल जाना।
पानी
लाँघ जाना।
मनुष्य
पशुओं के बच्चों, गाजर-मूली, पेड़-पौधों का देवी-देवता जैसे शक्ल के साथ पैदा होना।
जटायु
के बच्चे पैदा होना।
जमीन
से मूर्ति निकलना।
समाधि
से जिंदा निकलना।
मरने
के बाद अर्थी या चिता से जीवित उठ जाना।
पूर्व
जन्म की बातें याद होना।
किसी
की प्रेतात्मा प्रवेश कर जाना।
बीमार
होने पर झाड़-फूँक करवाना।
बिना
आग के चावल पकाना।
हल्दी
के पानी का खून बना देना।
हवनकुंड
में अग्निदेवता को प्रकट करना।
बिना
चीरफाड़ किये पथरी निकालना।
कुएँ
के जल को मीठा कर देना।
कपड़े
पर देवी के चरण छपना।
धन
को दुगना कर देना।
बंधा-वशीकरण
करना।
महुए
के पेड़ के नीचे हाथ-पाँव का फिसलना।
रात्रि
में मंदिर में रखे प्रसाद का जूठा हो जाना।
नरबलि
या पशु की बलि देना।
नारियल
फोड़ने पर खून या पुष्प निकलना।
खेत
में से हड्डियाँ या प्राचीन सिक्के निकलना।
शमशान
से चमक का दिखाई देना।
सफेद
दाग व सिरोसिस का जल के छीटों से ठीक हो जाना।
इन
सब के अलावा बीमारी, शादी ना होना, फसल अच्छी होना, पशुओं का बीमार होना, बच्चे
पैदा ना होना, सामान खो जाना, मकान ना होना, सिर्फ लडकियाँ ही पैदा होना, खास उम्र
तक आते-आते बच्चों का मर जाना, गड़ा धन प्राप्त करना, वशीकरण करना, प्यार में असफलता,
पराई स्त्री पर आसक्त होना, पढ़ाई लिखाई में अव्वल आना, पशु खो जाना, सोना खो जाना,
दौरे पड़ना आदि खास मुद्दों के लिए खास बाबा, सयाना, तांत्रिक, पीर, मियाँ जी,
अवतार, देवाजी आदि हर गाँव में या फिर आस-पास के गाँवों में मौजूद हुआ करते थे।
आस
पास के दस गाँवों का सर्वेक्षण करने पर पता चला कि फलाँ किस्म के लोग हुआ तो करते
थे परन्तु अब नहीं हैं, वो शहर चले गए हैं। शहर चले गए हैं कहने से तात्पर्य ये है
कि कहीं और चले गए हैं या धंधा बदल गए हैं। जागरुकता के कारण ही शायद उन का
कारोबार जो कि पूर्णत अंधविश्वास के आधार पर ही जारी था, धीरे-धीरे समाप्त होता
चला गया। कुछ आर्थिक रूप से सक्षम बाबे-मौलवी अपना डेरा बना कर बड़े स्तर पर भी कार्यरत हैं बातों-बातों में पता
चला कि एक बड़ा ओहदेदार बाबा नजदीक के कस्बे में बहुत बड़ा डेरा बनाकर आज भी कार्यरत
है और उस के पास लोग विदेश जाने के लिए वीजा लगवाने सम्बन्धित टोने-टोटके के लिए
जाते हैं। अधिक खोजबीन के बाद पता चला कि अपने पुत्र, पुत्रवधू आदि को विदेश में
भेजने के दौरान उस को विदेश भेजने सम्बन्धित सारी औपचारिक्ताओं का पता चल गया था जिस का लाभ उठाते हुए बाबा
एकदम सही-सही तुक्के लगाता और कल आने को कह कर समस्या सम्बन्धित निवारण सलाहकार
एजेंटों से सलाह करके बता देता है जो की सही निकलती है। वो बाबा गम्भीर मामलों में
दर्याफ्ती को उन एजेंटों के पास जाने की सलाह देता है जो उन का काम करवा देते है
और बाबा जी को भी मोटी रकम दलाली में मिलती है। इस कारण आज वो बाबा इलाके में
विदेश भेजने वाले वीजा बाबा के नाम से विख्यात है।
अंधविश्वासों
की उत्तरजीविता के कारण
हमारी
विज्ञान की पाठ्य पुस्तकें यदाकदा अंधविश्वासों की व्याख्या तो करती हैं परन्तु
आंशिक तौर पर ही। इस लेखन पर खास तवज्जो की आवश्यकता है। हमारा देश विज्ञान लेखन
में भी पिछड़ा हुआ है। आज वैज्ञानिक शब्दावली और
अभिव्यक्तियों की दृष्टि से हिंदी अत्यंत समृद्ध है। फिर भी आज वैज्ञानिक विषयों
पर हिंदी में लेखन बहुत ही कम और अपर्याप्त है। इसका कारण भाषा की अशक्तता कदापि
नहीं है बल्कि वैज्ञानिकों का इस दिशा में रुझान न होना ही हमारी विज्ञान लेखन की
इस दरिद्रता का कारण बना हुआ है। अशक्त व हीन विज्ञान
लेखन यदाकदा जादू टोने से शुरु होता है, उस की सत्ता को ही प्रचारित करता हुआ
अंतिम क्षणों में उसका खंडन तो करता है परन्तु विज्ञान व तार्किक सोच का मजबूत
पक्ष नहीं रख पाता। पूर्णतया वैज्ञानिक कल्पना का अभाव है क्योंकि वैज्ञानिक अभी
विज्ञान लेखन अपनाने से कतराते हैं या वंचित है। इस कारण आम साहित्यिक हिंदी लेखक
अच्छी सम्भावना और धनार्जन हेतु इस तरह के विज्ञान लेखन में अपने हाथ आजमा लेते
हैं और वो भी जादू-टोने के खंडन व भूत प्रेत कथाओं से उपर उठ ही नहीं पाते।
पथभ्रमित होते हुए उन के लेख खंडन की जगह प्रचार करते ही प्रतीत होते हैं। जैसा
कि कहा जाता है,
भारत ऐसा देश है जो संपन्न होते हुए भी दरिद्र है। वैज्ञानिक लेखन
के क्षेत्र में भी यही बात सच है। इसका निराकरण तभी संभव है जब एक तो, शिक्षा के माध्यम के रूप में भारतीय भाषाओं को अपनाया जाय तथा दूसरे वैज्ञानिकों
को हिंदी में बोलने और लिखने के लिए प्रेरित किया जाए।
विज्ञान लेखन की भयंकर कमी होने के कारण गत तीन दशकों में आम लोगो के हाथों में
विज्ञान लेखन आंशिक रूप से ही पहुँचा है जबकि अखबारों व रसालों के द्वारा
अंधविश्वास प्रेरक सामग्री अधिक पहुँची है।
समाज
से अंधविश्वासों, टोने-टोटकों, गंडा-ताबीज पूच्छा आदि के पूर्णतः समाप्त ना हो
सकने का कारण जनसंख्या का अधिक होना भी है। काम-धंधे रोजगार के अधिक अवसर ना होने
के कारण अधिकाँश लोग लघु मार्ग से अमीर बनना चाहते हैं और फिर वो इस प्रकार के
मार्गों की तलाश में निकलते हैं जिसका अंत अपराध पर समाप्त होता है। अधिकाँश
एन॰जी॰ओ॰ भी गैर जिम्मेदार हैं जो इस से सम्बन्धित धन लेकर भी इस संदर्भ में
पूर्णतया ईमानदार नहीं हैं।
घर-परिवार
में सभी सदस्यों के शैक्षिक स्तर में बड़ा अंतर है। समस्या के आने पर कभी अशिक्षा
शिक्षित सदस्य पर हावी हो जाती है और कभी शिक्षा जीत जाती है। अभी भी विचारों,
उम्र और शिक्षा स्तर में गम्भीर अंतर है जो कि नवचेतना के मार्ग में बाधक है।
एक
तरफ जहाँ मीडिया ने इन अंधविश्वासों को समाप्त करने में मदद की थी आज नए व्यवसायी
चैनल इन अंधविश्वासों को नित नए तरीकों से प्रस्तुत कर रहे हैं परन्तु यहाँ एक बात
काबिले गौर है। निर्मल बाबा के संदर्भ में पहले मिडिया उन को खूब उठाया और बाबा से
इस काम का पैसा लिया और फिर बाबा को ठिकाने भी लगा दिया और एकदम सब चुप भी कर गए।
निर्मल बाबा के प्रकरण में मीडिया की भूमिका संदिग्ध रही।
अंधविश्वासी
किस्सों और अनुभवों का हस्तान्तरण, किस्से-कहानियाँ, रीति-रिवाज, व्रत-त्यौहार,
पीर-औलिये, डेरे-मजार, धर्मप्रचार आदि कारक समाज के अंधविश्वास से पूर्णतया मुक्त
होने में रुकावट हैं।
अन्धविश्वास
निवारण में विज्ञान एवं प्रौद्योगिकी का योगदान
सर्वेक्षण
के दौरान गाँव अलाहर में बारह वर्ष से सत्तर वर्ष तक की उम्र के पुरुषों से
विभिन्न टोने-टोटके व अंधविश्वास सम्बन्धी अनुभव साँझे किये गए और वर्तमान में
इनके पहले जितने प्रचलित ना होने के कारण पूछे गए तो निम्न तथ्य सामने आये। पता
लगा कि सबसे अधिक भयभीत करने वाला कारनामा था हांडी छोड़ना, यदि रात में कोई हांडी
देख लेता था तो अपनी मौत को निकट ही समझता था। बुजुर्गों ने बताया कि गाँवों में
बिजली आने से अब हांडी छोड़ने की घटनाएँ नहीं होती हैं। युवाओं ने इस घटना के बारे
में अनभिज्ञता तो प्रकट नही की और यह कहा कि सुना तो है ऐसा होता था परन्तु देखा
कभी भी नहीं, जबकि बालकों ने कहा ऐसा नहीं हो सकता हांडी हवा में खुद नहीं तैर
सकती जरूर उसे कोई बाँस पर बाँध कर भागता होगा।
वैज्ञानिक
चेतना, टी॰ वी॰ रेडियो कार्यक्रम, नाटक, सीरियल-ड्रामा, चमत्कारों का पर्दाफाश,
तर्कशील सोसायटी के कार्यक्रम, अखबार-मैगजीन, कम्प्यूटर, इंटरनेट, विज्ञान ब्लॉग,
मोबाइल फोन, नुक्कड़ नाटक, तमाशा, विज्ञान जत्था, नवचेतना रैली, विज्ञान क्लब
गतिविधियाँ, नव जागरण पंथ, सत्संग कमेटियाँ, आर्य समाज सम्मेलन, उच्च शिक्षा
प्राप्त नागरिक आदि गाँव से अंधविश्वास, जादू-टोने, झाड़-फूँक आदि कुरीतियों को हटाने में सहायक
कारक बने।
ग्रामीण
क्षेत्रों में अन्धविश्वास निवारण के लिए सुझाव
गाँव
के विद्यालयों में छात्रों और अध्यापकों के लिए अंधविश्वास निवारण की विशेष
प्रशिक्षण कार्यशालाएँ लगाई जायें।
विज्ञान
के पाठ्यक्रम में ‘अंधविश्वास और उन का निवारण’ नामक अध्याय छठी से दसवीं कक्षा तक
जोड़ा जाए जिसमें स्थानीय उदाहरणों का भी हवाला दिया जाए।
विशेष
विज्ञान नवचेतना जत्थे देश भ्रमण पर निकाले जायें।
सरकारें
सज्ञान लेते हुए देश में कार्यरत तर्कशील सरीखी संस्थाओं को आर्थिक सहायता प्रदान
करें और उनको ग्रामीण क्षेत्रों में काम करने के लिये प्रेरित करें।
नागरिकों
को राष्ट्रीय वैज्ञानिक जागरण व विशेष अंधविश्वास निवारण बहादुरी पुरस्कार दिये
जायें।
गाँवों
में प्रति माह विशेष परामर्श अधिकारी भेजे जायें जो इन मामलों के अनुभवी हों।
अखबारों
में अंधविश्वास फैलाने वाले व भ्रमित करने वाले मौलवियों, सयानों, तांत्रिकों,
बाबों आदि के विज्ञापन पूर्ण रूप से प्रतिबंधित किये जायें।
डेरों,
आश्रमों, मजारों व दरगाहों की गतिविधियों पर विशेष नजर रखी जाए।
उपभोक्ता
वस्तुओं के विज्ञापन गैरचमत्कारी हों अर्थार् उन में किसी चमत्कार हो जाने की बात
ना कही जाए जैसे तीस दिन में कद बढ़ जाना, दो सप्ताह में वजन कम हो जाना आदि।
प्रत्येक
ग्रामीण स्कूल में एक खगोलीय दूरदर्शी दी जाए ताकि विद्यार्थियों को खगोलीय पिंडों
की वैज्ञानिक जानकारी देकर उनको तथाकथित
ग्रह चाल, ग्रह दशा व राशिफल आदि के भय से मुक्त किया जा सके।
उच्च
स्तर के वैज्ञानिक लेख, विज्ञान कथाएँ आदि अखबारों व पत्र-पत्रिकाओं में साप्ताहिक
या मासिक रूप से प्रकाशित करना प्रकाशकों के लिए अनिवार्य किया जाय।
किसी
भी घटना-दुर्घटना या चालाकी को चमत्कार के रूप में प्रचारित करने संस्था या कम्पनी
को दण्डित किया जाए।
यदि हमारे
गाँव और दूरस्थ आबादियाँ अंधविश्वास और चमत्कारों से मुक्त रहेंगे तो विज्ञान एवं
प्रौद्योगिकी का यह वरदान देश की तरक्की में
सहायक होगा।
दर्शन लाल
बवेजा
विज्ञान
संचारक
सचिव सी वी
रमन विज्ञान क्लब, विपनेट क्लब यमुनानगर
विज्ञान
अध्यापक
राजकीय
वरिष्ठ माध्यमिक विद्यालय अलाहर, यमुनानगर हरियाणा पिन १३५१३३
बहुत ही अच्छी जानकारी !!
ReplyDeleteअगर हमको एक अच्छे भारत का निर्माण करना है तो अंधविश्वास को दूर किये बिना ये मुश्किल है !!
thanks
Deletepooja aadi me kaam aane wala KAPOOR (Camphor) jwalansheel hai ....jab ise jalaya jay talee garm nahee hotee....kuchh log jeevha par rakh ise jalakar logon ko achambhit kar gumrah karke daiveey shakti batakar ...loot pat aur tantra mantr kee siddhi bhee batate hain...andh vishvas ,,,ka kaat hai ......aapkee vaigyanik kasauteeee...
ReplyDeletethanks
DeleteExcellent. Great Work.
ReplyDelete